महाभारत का मार्ग: गीता के प्रथम श्लोक से पहले की कहानी
- Sanjeev Srivastava
- 5 फ़र॰
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हस्तिनापुर का राजसिंहासन संकट में था। राजा विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद, उनके दो पुत्रों—धृतराष्ट्र और पांडु—में से धृतराष्ट्र को उनका अंधत्व राजा बनने से रोक रहा था। इसलिए, छोटे भाई पांडु को राजा बनाया गया।
पांडु एक महान राजा बने, लेकिन एक दिन वन में शिकार के दौरान, उन्होंने गलती से एक ऋषि का वध कर दिया, जो मृग का रूप धारण किए हुए थे। क्रोधित ऋषि ने उन्हें श्राप दिया कि यदि वे अपनी पत्नी से संतानोत्पत्ति का प्रयास करेंगे, तो उनकी मृत्यु हो जाएगी। यह श्राप पांडु को तोड़कर रख दिया। वे राजपाट छोड़कर वन में चले गए, और राजसिंहासन धृतराष्ट्र को सौंप दिया गया।
वन में रहते हुए, पांडु को संतान की इच्छा थी, लेकिन श्राप के कारण वे स्वयं पिता नहीं बन सकते थे। इस पर कुंती ने अपनी दिव्य शक्ति का उपयोग किया, जिससे उन्हें देवताओं से पुत्र प्राप्त हुए—युधिष्ठिर (धर्मराज), भीम (वायु पुत्र), और अर्जुन (इंद्र पुत्र)। माद्री ने भी इसी शक्ति से नकुल और सहदेव (अश्विनीकुमारों के पुत्र) को जन्म दिया।
एक दिन, पांडु अपनी इच्छा पर नियंत्रण नहीं रख सके और माद्री को स्पर्श कर बैठे। श्राप सत्य हुआ, और उनकी मृत्यु हो गई। शोकाकुल माद्री ने सती हो जाने का निर्णय लिया, और अपने बच्चों को कुंती को सौंप दिया।
अब, कुंती अपने पांचों पुत्रों के साथ हस्तिनापुर लौटीं, जहां वे अपने चचेरे भाइयों, कौरवों, के साथ बड़े हुए।
दुर्योधन की ईर्ष्या और लाक्षागृह की साजिश
समय के साथ, यह स्पष्ट हो गया कि पांडवों में बुद्धि, शक्ति और योग्यता अधिक थी। युधिष्ठिर को युवराज घोषित किया गया, जिससे दुर्योधन के हृदय में ईर्ष्या और द्वेष की आग भड़क उठी।
शकुनि की सलाह पर, दुर्योधन ने पांडवों को मारने की साजिश रची। उसने उन्हें वारणावत के महल में भेजा, जो मोम (लाक्षागृह) से बना था, और उसमें आग लगवा दी। लेकिन विदुर ने पहले ही उन्हें इस षड्यंत्र की सूचना दे दी थी, और वे गुप्त मार्ग से भाग निकले।
द्रौपदी का स्वयंवर और इंद्रप्रस्थ की स्थापना
भटकते हुए, पांडव पंचाल पहुंचे, जहां राजा द्रुपद ने अपनी पुत्री द्रौपदी के लिए स्वयंवर रचा। शर्त थी कि जो घूमती हुई मछली की आँख पर केवल पानी में प्रतिबिंब देखकर तीर मार देगा, वही द्रौपदी से विवाह कर सकेगा।
अर्जुन ने यह कठिन कार्य पूरा किया, और द्रौपदी पांडवों की पत्नी बनीं। अंततः, पांडवों ने स्वयं को प्रकट किया, और उन्हें हस्तिनापुर में उनका राज्य देने का निर्णय लिया गया।
दुर्योधन ने उन्हें एक बंजर भूमि दी, लेकिन अर्जुन और श्रीकृष्ण के सहयोग से उन्होंने वहां इंद्रप्रस्थ नामक भव्य नगर बसाया।
जुए का खेल और द्रौपदी का अपमान
पांडवों की बढ़ती शक्ति देख, दुर्योधन ने शकुनि की मदद से एक नई साजिश रची। उसने युधिष्ठिर को चौसर के खेल में बुलाया, जहां शकुनि ने छलपूर्वक उन्हें हराया।
युधिष्ठिर ने राज्य, भाइयों, और अंततः द्रौपदी तक को दांव पर लगा दिया। हारने के बाद, दुर्योधन ने द्रौपदी का अपमान करने का प्रयास किया, लेकिन श्रीकृष्ण ने उनकी लाज बचाई।
राज्य सभा में यह निर्णय हुआ कि पांडवों को 13 वर्षों के लिए वनवास जाना होगा—12 वर्ष वन में और 1 वर्ष अज्ञातवास में।
वनवास, अज्ञातवास, और अंतिम शांति प्रयास
12 वर्षों तक पांडव वन में भटकते रहे। अर्जुन ने दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए, भीम ने हनुमान से भेंट की, और युधिष्ठिर ने धर्म का गूढ़ ज्ञान प्राप्त किया।
अज्ञातवास में, उन्होंने मत्स्यदेश के राजा विराट के दरबार में भेष बदलकर जीवन व्यतीत किया।
वापसी के बाद, पांडवों ने अपना राज्य वापस मांगा, लेकिन दुर्योधन ने कहा कि वह उन्हें सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं देगा।
कृष्ण स्वयं हस्तिनापुर गए और शांति का प्रस्ताव रखा। लेकिन दुर्योधन ने अहंकार में इसे ठुकरा दिया और कृष्ण को बंदी बनाने का प्रयास किया।
तब कृष्ण ने अपना विराट रूप (विश्वरूप) दिखाया, जिससे सभी हतप्रभ रह गए।
अब युद्ध निश्चित हो गया था।
कुरुक्षेत्र का महासंग्राम
कुरुक्षेत्र की भूमि पर, दोनों सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं। एक ओर भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा जैसे योद्धा कौरवों की सेना में थे, तो दूसरी ओर भीम, अर्जुन, द्रुपद, अभिमन्यु, और सत्यकी पांडवों के पक्ष में।
युद्ध शुरू होने से ठीक पहले, अर्जुन ने जब अपने ही बंधु-बांधवों को अपने सामने खड़ा देखा, तो वह मोहग्रस्त हो गए।
क्या वह अपने ही परिवार को मारकर राज्य प्राप्त कर सकते थे?
क्या यह धर्म था?
क्या यह युद्ध न्यायोचित था?
उनकी धर्म और कर्तव्य को लेकर गहरी दुविधा उन्हें भीतर से तोड़ रही थी।
अर्जुन ने अपना धनुष नीचे रख दिया और युद्ध करने से मना कर दिया।
यह देखकर श्रीकृष्ण मुस्कुराए।
अब समय था भगवद्गीता के उस दिव्य ज्ञान के प्रकट होने का, जो केवल अर्जुन के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए था।
लेकिन इससे पहले, हस्तिनापुर के अंधे राजा धृतराष्ट्र, जो स्वयं युद्ध देख नहीं सकते थे, अपने सारथी संजय से प्रश्न पूछते हैं—
"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥"
"हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र होकर युद्ध की इच्छा रखने वाले मेरे पुत्र और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?"
यहीं से प्रारंभ होती है भगवद्गीता—एक अमर ज्ञान का दिव्य संवाद, जो धर्म, कर्तव्य और आत्मबोध का मार्ग प्रशस्त करता है।


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